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मंत्री की जुबान ज़हर , तो अदालत ही आख़िरी उम्मीद* *विनोद पाण्डेय*

 


रिपोर्ट @मिर्जा अफसार बेग

अनूपपुर। मध्यप्रदेश हाई कोर्ट का मंत्री विजय शाह के विवादित बयान पर एफआईआर का स्वत: संज्ञान लेकर आदेश देना स्वागत योग्य पहल है। यह वह हस्तक्षेप है, जिसकी दरकार लंबे समय से थी एक ऐसी व्यवस्था में जहां जनता असहाय, प्रशासन मौन और सत्ताधारी दल निष्ठुर दर्शक बन चुके हैं। जब हर ओर से चुप्पी छाई हो, तब न्यायपालिका की आवाज़ लोकतंत्र की अंतिम पुकार बनकर सामने आती है।
चाल, चरित्र और चेहरा वाली सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी भाजपा  खुद को लंबे समय से अनुशासन, राष्ट्रवाद और नैतिक मूल्यों की पार्टी बताती रही है। लेकिन जब उसी पार्टी के वरिष्ठ मंत्री कर्नल सोफिया कुरैशी पर सार्वजनिक मंच से अभद्र और अशोभनीय टिप्पणी करते हैं  तो सवाल उठना लाज़िमी है कि क्या सत्ता का नशा अब नैतिकता और संवेदनशीलता को पूरी तरह लील चुका है?कर्नल सोफिया कुरैशी उन चुनिंदा महिला अधिकारियों में से हैं, जिन्होंने पहलगाम हमले के बाद ऑपरेशन सिंदूर  मिशन को लीड किया और देश की रक्षा में अहम भूमिका निभाई। उन पर की गई टिप्पणी न सिर्फ़ एक महिला का अपमान है, बल्कि पूरे देश, सेना की गरिमा और राष्ट्रीय अस्मिता का अपमान है।यह शर्मनाक बयान मंत्री विजय शाह की जुबान का पहला फिसलना नहीं है। 2013 में मुख्यमंत्री की पत्नी पर की गई अशालीन टिप्पणी, छात्राओं को टी-शर्ट बांटते समय की गई अभद्र बात  ये सब उनके आचरण में निरंतर गिरावट और शालीनता के अभाव को दर्शाते हैं। हर बार पार्टी की चुप्पी और खानापूर्ति वाली माफ़ी ने उन्हें यह समझा दिया कि वे जो चाहें कह सकते हैं राजनीतिक कीमत चुकाए बिना।यह सिलसिला यही बताता है कि वोट बैंक की राजनीति में अनुशासन और मर्यादा अब गौण हो चुकी है।सत्ता के संरक्षण में अक्सर प्रशासनिक तंत्र डर के साये में काम करता है। पुलिस कोई कार्रवाई नहीं करती, और पार्टी मौन समर्थन देती है। ऐसे में जब सब चुप हों, तो न्यायपालिका ही एकमात्र उम्मीद बन जाती है। हाई कोर्ट का यह आदेश केवल कानूनी नहीं, नैतिक चेतना का भी उद्घोष है।
यह आदेश उन तमाम न्यायालयों के लिए एक प्रेरणा है, जो सत्ता के गलत इस्तेमाल पर आंख मूंदे बैठे हैं। यह उन अधिकारियों और पुलिसकर्मियों को भी ताक़त देगा, जो राजनीतिक दबाव में अपनी आवाज़ खो चुके हैं। यह दिखाता है कि लोकतंत्र में कानून का डंडा कभी भी चल सकता है अगर उसे उठाने का साहस हो।सवाल सिर्फ एक मंत्री का नहीं, बल्कि राजनीतिक संस्कृति की गिरावट का है। आखिर कब तक हम ऐसे नेताओं को टिकट, पद और ताकत देते रहेंगे, जो अपनी ज़ुबान से ज़हर उगलते हैं और समाज में नफ़रत व असंवेदनशीलता फैलाते हैं?अब वक्त है कि जनता सिर्फ नारों से नहीं, वोट  से जवाब दे। चुनाव सिर्फ उत्सव नहीं, चरित्र चयन की कसौटी हैं। अगर हम आज नहीं जागे, तो आने वाली पीढ़ियां हमसे सवाल करेंगी आपने ऐसे नेताओं को क्यों चुना?


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