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उद्घाटन से पहले ही बीमार पड़ी "संजीवनी क्लिनिक राजनगर

 


रिपोर्ट @अजय रस्तोगी

अनूपपुर= मुख्यमंत्री संजीवनी क्लीनिक, जिसे करीब 25 लाख रुपए की लागत से तैयार किया गया था, आज तक उद्घाटन का इंतजार कर रही है। लेकिन इमारत की हालत देखकर लगता है मानो अब इसका उद्घाटन नहीं, श्राद्ध किया जाना बाकी है। दरवाजों पर ताले हैं, खिड़कियों पर जाले, और अंदर सरकारी बोर्ड जंग खा रहे हैं इलाज, डॉक्टर या स्टाफ का कहीं नामोनिशान नहीं।

*आदिवासी बहुल इलाका, जहां पेट भरना ही चुनौती है*

यह इलाका मुख्यतः आदिवासी आबादी वाला है, जहां के अधिकतर लोग गरीबी रेखा से नीचे जीवन जीते हैं। रोजगार के स्थायी साधन न होने के कारण लोग खदानों में ठेका मजदूरी, खेतों में दिहाड़ी या छोटे-मोटे काम कर किसी तरह दिनभर की मजदूरी में 100–150 रुपये कमाते हैं। जब पेट भरना ही रोज़ की जंग हो, तब अगर किसी पर बीमारी आ जाए तो वह परिवार आर्थिक रूप से टूट जाता है। ऐसे हालात में सरकारी अस्पताल ही आखिरी उम्मीद होते हैं, लेकिन यहां तो वह भी नाम मात्र का है।

*जब डॉक्टर नहीं, तो झोलाछाप ही ‘डॉक्टर साहब’*

संजीवनी क्लीनिक में नियमानुसार डॉक्टर, नर्सिंग मिडवाइफ, लैब टेक्नीशियन, फार्मासिस्ट और सफाईकर्मी होने चाहिए लेकिन यहां कोई भी तैनात नहीं है कभी-कभार जो एक नर्स दिखती थीं, वे भी अब सेवानिवृत्त हो चुकी हैं। ऐसे में आम ग्रामीणों को मजबूरी में झोलाछाप डॉक्टरों के पास जाना पड़ता है, जहां न इलाज की गारंटी होती है, न जीवन की सुरक्षा। सरकारी लापरवाही के बीच, गरीबों के पास बस भगवान और किस्मत का सहारा बचता है।

*पलायन तेज़, उम्मीदें धीमी — और स्वास्थ्य सुविधा शून्य*

इस क्षेत्र में पहले से ही सरकारी भर्तियां बंद, रोजगार के विकल्प सीमित, और ठेका मजदूरी में भारी भ्रष्टाचार जैसी समस्याएं लोगों को गाँव छोड़ने पर मजबूर कर रही हैं।
अब जब स्वास्थ्य सेवाएं भी बंद दरवाज़ों के पीछे छुप गईं, तो गरीब आदिवासी परिवारों का जीना और मुश्किल हो गया है। अगर सरकार ने स्वास्थ्य शिक्षा और रोजगार पर ईमानदारी से ध्यान नहीं दिया, तो यह क्षेत्र जल्द ही खाली खेतों और बंद स्कूलों की बस्ती बनकर रह जाएगा। “संजीवनी” जैसी योजनाएं अगर सिर्फ कागज़ों में चलती रहीं, तो सवाल सिर्फ इलाज का नहीं बचेगा सवाल जीवन के अधिकार का उठेगा।



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